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Shrimal is a place in India’s Rajasthan State . presently know as bhinmal. Shrimal is a combination of ” Shri ” and ” Mal ” . ” Shri ” is popularly interpreted as Laksmi , the goddess of wealth . ” Shri ” also means beauty and brightness , “Mal” means place . Thus Shrimal about 800 years ago was a beautiful prosperous place where along with other castes , Goldsmiths too lived , created pieces of beauty out of gold and prospered with other communities .

Unfortunately with constant invasions by foreigners on the North-Western borders of India , Shrimal broke down and thereby received the name Bhinmal . In Sanskrit language , the word Bhinna means broken or seperated and therefore Bhinmal means broken place . According to Shrimal Puran (part of Skanda Puran) due to curse of Rishi Gautam and Goddess Laksmi Shrimali Nagar decentrised and it’s prosperity and population come down. Since Shrimal Nagar suffered a lot, the people living there were forced to migrate. Most of them started migrating towards Gujarat and Marwar (Rajasthan). Therefore most of the Shrimali Brahmins presently residing in these two states, although they had moved and established presently all over the world with their traditional and modern profession too.

Scholar and specialized in Vedic culture of India, we can be better identified the “Shrimali Brahmin” in this Sanskrit Poem titled “Vayam Shrimali” means We are Shrimali.

ORIGIN & HISTORY

भारतवर्ष के सांस्कृतिक इतिहास में श्रीमाली ब्राहम्णों का विशेष स्थान है। प्रमुख रूप से ये लोग राजस्थान, गुजरात व मध्य प्रदेश में पायें जाते है, किन्तु आजीविका की दृष्टि से वर्तमान में सम्पूर्ण भारत तथा विश्व के अनेक भागों में फैले हुये हैं। हिन्दू समाज में वर्णव्यवस्था के विकास पर दृष्टिपात किया जाय तो वैदिक काल में चतुवर्ण व्यवस्था के अन्र्तगत ब्राहम्ण वर्ग से ही इनका संबंध रहा है। जिस समय ब्राहम्ण वर्ग में से जन्मजात रूढ़ जातीय जीवन का विकास हुआ तब ब्रहम्र्षि देश में निवास करने वाले ब्राहम्णों से निकले दस प्रकार के ब्राहम्ण इस भूमण्डल में प्रसिद्ध हुये – पंचगौड़ एवं पंचद्रविड़। विन्ध्याचल के उत्तर में निवास करने वाले सारस्वत, कान्यकुब्ज, गौड, उत्कल, औदीच्य एवं मैथिल पंचगौड कहलाए तथा विन्ध्याचल के दक्षिण में निवास करने वाले कर्नाटक, तैलंग, द्रविड, गुर्जर व महाराष्ट्र पंचद्रविड़ कहलाये। उत्तरी गुजरात में बसने (गुजरात भी द्रविड देश में शुमार है) से श्रीमाली ब्राहम्ण पूर्व में द्रविड़ ब्राहम्ण कहलाए तथा पंच द्रविड़ों में गुजराती (गुर्जर) पुकारे जाते थे। कालान्तर में जब विभिन्न कारणों (वर्ण संकरता, वंश अनुवांशिकता, प्रदेश इत्यादि) से जातियाँ उपजातियों में बँटी तो स्थान विशेष के कारण (कश्मीर के रहने वाले कश्मीरी ब्राहम्ण , कन्नौज के कान्यकुब्ज, गौड देश के गौड ब्राहम्ण इत्यादि) श्रीमाल प्रदेश (भीनमाल-जालौर) में रहने वाले ब्राहम्ण श्रीमाली ब्राहम्ण के नाम से जाने जाने लगे। ब्राहम्ण शब्द का अर्थ ही वेदों के उस भाग से है जिसमें कर्मकाण्ड समझाया गया है। श्रीमाली ब्राहम्ण इसी विशिष्टता का प्रतिनिधित्व करते हुये वेदाध्यायी, कर्मकाण्डी तथा शुद्ध उच्चारण के लिये समस्त ब्राहम्णों में प्रसिद्ध हैं।

श्रीमाली ब्राहम्णों के इतिहास की जानकारी का सर्वोत्तम उपलब्ध प्रमाण श्रीमालपुराण है जिसे श्रीमाल माहात्म्य भी कहते हैं, इसके लेखक के अनुसार यह स्कन्ध पुराण का ही एक भाग है। यद्यपि तथ्यों एवं कालक्रम की दृष्टि से इसमें गंभीर ऐतिहासिक भूलें है, फिर भी उपलबध प्रमाणों में यह सर्वोत्तम है जो इस जाति के इतिहास का एकमात्र विस्तृत स्रोत है। इसके अलावा श्रीमाल प्रदेश में रचे हुये फुटकर जैन साहित्य, शिलालेखों, भाटबहियों, किवदन्तियों तथा परम्परागत रीति-रिवाजों से भी इस जाति के ऐतिहासिक विकास का पता चलता है। श्रीमाल पुराण विक्रम की तेरहवीं सदी के पूर्वाद्ध की रचना प्रतीत होती है। यह पचहत्तर अध्याय व सैकड़ों श्लोको में संस्कृत भाषा में रचित है। श्रीमाल पुराण में श्रीमाल नगर एवं श्रीमाली ब्राहम्णों के संबंध में कथानक निम्न प्रकार से है: भृगु ऋषि के यहाँ एक बहुत सुन्दर कन्या का जन्म आसोज कृष्णा अष्टमी को हुआ। उसका नाम श्री (लक्ष्मी) रखा गया। उस कन्या का विवाह क्षीरसागर (बंगाल की खाड़ी) से भृगु के यहां आकर विष्णु भगवान ने किया। गरूड़ पर सवार होकर श्री के साथ विष्णु भगवान (प्रतीकात्मक) त्रयंबक सरोवर आये। उस कन्या ने सरावेर में स्नान किया जिससे उसका मानवीय जड़त्व मिटा और दिव्य देवत्व प्राप्त हुआ। तब श्री की इच्छा हुई की मैं यहां एक नगर बसाऊँ। इस प्रकार श्री के विवाह के अवसर पर श्रीमाल नगर की नींव पड़ी और तभी से श्रीमाली ब्राहम्ण जाति का उद्भव हुआ। लक्ष्मी (श्री) की भावना के अनुसार यह बसने वाला नगर ब्राहम्णों को दान में देना था। अतः विष्णु ने अपने दूतों को ब्राहम्णों को लेने के लिये नाना प्रदेशों में तुरन्त भेजा और उनके निमंत्रण पर विभिन्न स्थानों से जो ब्राहम्ण आये उनकी कुल संख्या पचार हजार थी जिसमें सैधवारण्यवासी पांच हजार ब्राहम्ण भी थे। एक दान का अधिक व्यक्तियों को संकल्प नहीं हो सकता, इस सिद्धांत के अनुसार एक ऐसा व्यक्ति इसके लिये तय करना आवश्यक था जो ज्ञानी, विद्वान, श्रेष्ठतम् एवं अध्र्य वंदन करने योग्य हो। विष्णु, श्री तथा ब्राहम्णों ने इसके लिये महर्षि गौतम, जो आंगिरसी ब्राहम्ण थे और काशी से आये थे, को ही उत्तम समझा ; किन्तु सैधवारण्यवासी ब्राहम्णों ने इसका विरोध किया और गौतम की आलोचना की। इस पर आंगिरसी ब्राहम्णों (जो उज्जैन क्षेत्र से आये थे) ने सैधवारण्यवासी ब्राहम्णों पर कोप करते हुये शाप दिया की तुम लोग वेद से विमुख होओगे। शाप लगने से सैधवारण्यवासी सिन्धु सौवीर से आये हुये ब्राहम्ण पुनः अपने क्षेत्र में चले गये। विष्णु व लक्ष्मी ने महर्षि गौतम को अध्र्य वंदन करवाकर, संकल्प कर उस पुण्य क्षेत्र को दान में दे दिया, जिसे गौतम ने उपस्थित ब्राहम्णों में वितरित कर दिया था। श्री के बसाए हुये नगर में ब्राहम्ण बस गये, तभी से यह नगर श्रीमाल नगर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके साथ ही यहां बसे ब्राहम्ण श्रीमाली ब्राहम्ण कहलाने लगे तथा अपनी सख्यां के आधार पर इनकी पहचान ‘‘पैतालीस हजार की न्यात’’ से हो गयी। यद्यपि कालान्तर में यह संख्या परिवर्तित होती गयी, किन्तु अपनी परम्परागत पहचान के बतौर समस्त श्रीमाली ब्राहम्ण आज भी अपने को 45 हजार की न्यात से संबोधित करने में गौरव अनुभव करते हैं।